घूरे के दिन भी संवरते ....एक दिन
ज़िंदगी जो आज है
वह कल थी
किसी घूरे पर पड़ी मल
गंध से कराहती.
कोई पूंछने को न आता
सितारे दूर से निकल जाते
बागों के फूल मुंह चिढ़ाते
पूरी देह कांटों में
और कांटे देह से बिंध जाते.
रो पड़ते आकाश
आंखों से पानी नहीं
सरसराती हवा बह निकलती
पुरवाई सबको सुख देती
पर ज़िंदगी गठियाबाई
यह सोच
मल की चींख निकल आई
हवा रुक नहीं पायी.
धरा अति दयावान
तत्क्षण आंचल में रख दुलराती...
पुचकारती
मल गंध घात लगाकर
श्वांस रोकती
दर्द सिर पर चढ़कर घर कर जाती.
नौ महीने बाद
मल की ढेर...ज़िंदगी!
खाल की खोल में अंगड़ाई लेती
बजती थालियां
बधाईयां गुनगुनाती
लड्डुओं के दौर चलते
सिक्के उछलते....
इसी बीच ज़िंदगी !
रो पड़ती कल पर और लोग....
आज पर हंसते
प्याले पर प्याले पीते
घूरे के दिन भी संवरते.....
एक दिन.
रचनाकार......केवल प्रसाद सत्यम
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