Tuesday 7 January 2014

!!! नवगीत !!!


अंधेरों सी घुटन में, जमीं के टूटते तारे।
सहम कर बुदबुदाते, बिफर कर रो रहे सारे।।

उजालों ने दिए हैं, घोटालों की निशानी।
दिए हैं झूठ के रिश्ते, फरेबी तेल की घानी।
जली है अस्मिता बाती, हुए हैं ताख भी कारे।
नजर की ओट में रहकर, नजर की कोर भी पारे।।1

सलोना  चॉद सा मुखड़ा,  चॉदनी पाश के पट में।
छले जनतन्त्र अक्सर अब, नदी तरूणी लुटे पथ में।
तड़फती रेत सी समता, पवन में खोट है सारे।
जमे हैं पाव शकुनी के, धर्म भी नारि सत हारे।।2

उबासॉसी सहे सागर, बढ़ी तकरार सी गर्दिश।
चिढ़ाती मुह  तभी सर्दी, कहर से तंग है वर्जिश।
पड़े हैं नग्न सड़को पर, हाड़ की झाड़ झनकारे।
गरीबी भी गजब गहना, भूख औ प्यास को मारे।।3

विकासो की कहानी बस, तमाशों तक रहे सीमित।
कठिन है शब्द-लफ्जों मे, बयां करना हकीकत-हित।
तराशा   जो   शहीदो   ने,  धर्म   का   देश   ललकारे।
मगर यह सूर्य पश्चिम का, अब संस्कृति ज्ञान उघारे।।4

के0पी0सत्यम मौलिक व अप्रकाशित

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