Saturday 23 July 2016

मुहावरों में दोहा छंद की छटा...

मुहावरों में दोहा छंद की छटा...


गाल बजा कर दल गये, जो छाती पर मूंग.
वही अक्ल के अरि यहां, बने खड़े हैं गूंग.

शीष ओखली में दिया, जब-जब निकले पंख.
उंगली पर न नचा सके, रहे फूंकते शंख.

डाल आग में घी करे, हवन दमन की चाह. 
अंत घड़ों पानी पियें, खुलती कलई आह.

फूंक-फूंक कर रख कदम, कांटों की यह राह.
खेल जान पर तोड़ना,  चांद सितारे वाह.

अपने पैरों पर करें, लिये कुल्हाड़ी वार.
दोष  और को दे रहे, उलटा यह संसार.

आंख चुरा कर घूमते, मिला न पाए आंख.
आंखों के तारे मगर, बिखरे जैसे पांख.

आसमान से बात कर, मत अम्बर पर थूक.
कण्ठ-हार बन कर चमक, अवसर पर मत चूक.

बुरा त्याग कर देखिये, अच्छे में उत्साह.
रत्ना डाकू भी बने बालमीक ऋषि वाह.८

अच्छे दिन की सोच में, बुरी नहीं यदि सोंच
दीन-हीन के दुःख को, दूर करें बिन खोंच.९

सांसारिक उद्देश्य ने, रिश्ते गढ़े कुलीन.
पर व्यवहारिक ताप में, मानव करे मलीन.१०


रचनाकार..... केवल प्रसाद सत्यम
दोहा छंद


सावन-भादों बरसते, करके गुप अंधियार.
अंत अमावस कार्तिकी, करती दीप प्रसार.१


आदर्श आदरणीय को, निरा मूर्ख मत जान.
कठिन तपस्या शोध में, मिला उन्हें सम्मान.२


ध्यान रखे इस बात का, नश्वर जीव-अजीव.
किंतु प्रगति के मार्ग हित, मिलकर रखते नींव.३


सत्य ज्ञान उत्कर्ष के, लिए प्रेम सुख सार.
करें झूठ अति मूढ़ से, प्रतिपल सद व्यवहार.४


काले धन की चाह में, करते हैं जो लूट.
अंत समय पीना पड़े, उनको कड़ुवा घूट.५

धन्यवाद ज्ञापन  करें, नेक खुदा का आज.
तीसों रोज़ों के लिये, पढ़ कर ईद नमाज़.६



//......रचनाकार...(केवल प्रसाद सत्यम)

Saturday 30 April 2016

घूरे के दिन भी संवरते ....एक दिन

घूरे के दिन भी संवरते ....

ज़िंदगी जो आज है
वह कल थी
किसी घूरे पर पड़ी मल
गंध से कराहती
कोई पूंछने को न आता
सितारे दूर से निकल जाते
बागों के फूल मुंह चिढ़ाते
पूरी देह कांटों में
और कांटे देह से बिंध जाते
रो पड़ते आकाश
आंखों से पानी नहीं
सरसराती हवा बह निकलती 
पुरवाई सबको सुख देती
पर ज़िंदगी गठियाबाई
यह सोच
मल से चींख निकल आई
हवा रुक नहीं पायी.
धरा अति दयावान
तत्क्षण आंचल में रख दुलराती
पुचकारती
मल गंध घात लगाकर
श्वांस रोकती
दर्द सिर पर चढ़कर घर कर जाती
नौ महीने बाद
मल की ढेर...ज़िंदगी!
खाल की खोल में अंगड़ाई लेती
थालियां बजायी जाती
बधाईयां गुनगुनाती
लड्डुओं के दौर चलते
सिक्के उछलते....
इसी बीच ज़िंदगी!
रो पड़ती कल पर और
लोग आज पर हंसते
प्याले पर प्याले पीते
घूरे के दिन भी संवरते.....
एक दिन.

रचनाकार...केवल प्रसाद सत्यम/ 

घूरे के दिन भी संवरते ....एक दिन

घूरे के दिन भी संवरते ....

ज़िंदगी जो आज है
वह कल थी
किसी घूरे पर पड़ी मल
गंध से कराहती
कोई पूंछने को न आता
सितारे दूर से निकल जाते
बागों के फूल मुंह चिढ़ाते
पूरी देह कांटों में
और कांटे देह से बिंध जाते
रो पड़ते आकाश
आंखों से पानी नहीं
सरसराती हवा बह निकलती 
पुरवाई सबको सुख देती
पर ज़िंदगी गठियाबाई
यह सोच
मल से चींख निकल आई
हवा रुक नहीं पायी.
धरा अति दयावान
तत्क्षण आंचल में रख दुलराती
पुचकारती
मल गंध घात लगाकर
श्वांस रोकती
दर्द सिर पर चढ़कर घर कर जाती
नौ महीने बाद
मल की ढेर...ज़िंदगी!
खाल की खोल में अंगड़ाई लेती
थालियां बजायी जाती
बधाईयां गुनगुनाती
लड्डुओं के दौर चलते
सिक्के उछलते....
इसी बीच ज़िंदगी!
रो पड़ती कल पर और
लोग आज पर हंसते
प्याले पर प्याले पीते
घूरे के दिन भी संवरते.....
एक दिन.

रचनाकार...केवल प्रसाद सत्यम/ 

घूरे के दिन भी संवरते ....एक दिन

घूरे के दिन भी संवरते ....एक दिन

ज़िंदगी जो आज है
वह कल थी
किसी घूरे पर पड़ी मल
गंध से कराहती.
कोई पूंछने को न आता
सितारे दूर से निकल जाते
बागों के फूल मुंह चिढ़ाते
पूरी देह कांटों में
और कांटे देह से बिंध जाते.
रो पड़ते आकाश
आंखों से पानी नहीं
सरसराती हवा बह निकलती 
पुरवाई सबको सुख देती
पर ज़िंदगी गठियाबाई
यह सोच
मल की चींख निकल आई
हवा रुक नहीं पायी.
धरा अति दयावान
तत्क्षण आंचल में रख दुलराती...
पुचकारती
मल गंध घात लगाकर
श्वांस रोकती
दर्द सिर पर चढ़कर घर कर जाती.
नौ महीने बाद
मल की ढेर...ज़िंदगी!
खाल की खोल में अंगड़ाई लेती
बजती थालियां 
बधाईयां गुनगुनाती
लड्डुओं के दौर चलते
सिक्के उछलते....
इसी बीच ज़िंदगी !
रो पड़ती कल पर और लोग.... 
आज पर हंसते
प्याले पर प्याले पीते
घूरे के दिन भी संवरते.....
एक दिन.
रचनाकार......केवल प्रसाद सत्यम